सरहद पार से पैगाम आया हैं ;
पैगाम मुल्क के नाम आया हैं;
बलूचियों ने मदद की गुहार लगायी हैं ;
आज़ादी की उम्मीद हमसे जगाई हैं।
हम तो इन्हें जानते भी नहीं ;
ये बलूची कहाँ हैं, कौन हैं ;
हमारा इनसे क्या रिश्ता हैं,
सत्तर साल से हम मौन हैं।
कहाँ हैं ये कळात ;
कौन हैं नवाब बुगती ;
क्यों इनकी कहानियो पर
हमारी रूह नहीं दुखती।
रोज़ जपते हैं हम,
पर बिसार दी हिंगलाज भवानी;
कौन हैं ये लोग जिन्होंने ;
वर्षो सहेजी ये निशानी।
फौजी बूटो से कुचली मासूमियत
बच्चो को ढूंढती माँ की सिसकी ;
कुछ तो उम्मीद रही होगी ,
नजर उनकी हम पर ठिठकी।
हम मुजरिम हैं तिब्बत के ;
हम थोड़ा पंचशील हो गए ;
इंसानियत को भूल गए '
खुदगर्जी में जलील हो गये।
जो कहते हैं घर की आग बुझाने,
हम उनकी आग में घी डाल रहे हैं;
ऐसे आस्तीन के सांपो को
हम क्यों पाल रहे हैं।
जब कट्टरता मात्र हो मुल्क की अवधारणा ;
आसान नक़्शे पर देश को उतारना हैं;
दिलो में घृणा का ही जब आधार हो
अवाम में ऐसे राष्ट्र को बसाना कोरी कल्पना है।
बहुत सह लिया इस जुल्म को ;
भारत अब और मूक नहीं बैठेगा,
जो इतिहास से सबक नहीं लेंगे
उनके लिए एक बंगदेश फिर से बनेगा।
आजाद बलूचिस्तान में ;
माँ हिंगलाज के दर्शन का इरादा हैं,
लड़ाई में बलूची खुद को अकेले ना समझे
ये हिंदुस्तानी अवाम का वादा हैं।
आसान नक़्शे पर देश को उतारना हैं;
दिलो में घृणा का ही जब आधार हो
अवाम में ऐसे राष्ट्र को बसाना कोरी कल्पना है।
बहुत सह लिया इस जुल्म को ;
भारत अब और मूक नहीं बैठेगा,
जो इतिहास से सबक नहीं लेंगे
उनके लिए एक बंगदेश फिर से बनेगा।
आजाद बलूचिस्तान में ;
माँ हिंगलाज के दर्शन का इरादा हैं,
लड़ाई में बलूची खुद को अकेले ना समझे
ये हिंदुस्तानी अवाम का वादा हैं।