Monday, October 10, 2016

उरी के शहीद - जनमानस



ए मेरे वतन के लोगों ,
ज़रा आँख में भरलो पानी ,
जो शहीद हुए हैं उनकी 
ज़रा याद करो कुर्बानी । 

१९६२ , चीन युद्ध के बाद कवि प्रदीप द्वारा रचित गीत ५४ वर्ष बाद भी भारतीय जनमानस में भावनाओ का ज्वार ला देता हैं । यह गीत हमारी मनः स्तिथि में पुराने घावों को उकेर जाता हैं । राष्ट्रीय पर्वो और श्रद्दांजली कार्यक्रमो पर इस गीत का आज भी उतना ही प्रचलित होना दर्शाता हम अक्सर अपने जवानों की शहादत को जल्द भूल ही नहीं जाते अपितु इस बात को मानने लग गए हैं की व्यक्ति सेना में मरने के लिए ही जाता हैं। 

कुछ यही सोच उरी के सैनिक कैम्प पर हुई आतंकवादी घटना के बाद रही होगी । साथ में सरकार भी दो चार बयान देकर निष्क्रियता की चादर ओढ़ लेगी । भारत जहाँ एक आर्थिक महाशक्ति के तौर पर उभर रहा रहीं वहीँ दूसरी तरफ ऐसी घटनाओ के बाद हमारी प्रतिक्रिया भारत को एक कमज़ोर राष्ट्र और समाज के तौर पर प्रस्तुत करती हैं । वर्षो से अपने जवानों और शहर दर शहर नागरिको पर हुए आतंकी हमलो को नज़रअंदाज करते हुए भारत सिर्फ आर्थिक प्रगति के मार्ग पर निर्बाध गति से दौड़ना चाहता हैं , इस मानसिकता ने भारत को एक "बनाना रिपब्लिक" की छवि के तौर पर स्थापित किया हैं । सवाल ये भी उभरता हैं कि अवाम किसी भी कार्यवाही और उसके बाद उपजे हुए हालात के लिए कितना तैयार हैं । सरकार से इतर क्या उसमे भी कठोर निर्णय लेने और उसके साथ खड़े रहने की क्षमता हैं ?

परंतु इस बार सरकार से पहले भारतीय जनमानस काफी हद तक एकजुट और तैयार था । अठारह जवानों की मौत पर देश मात्र अश्रुपूर्ण श्रद्धांजली के लिए तैयार नहीं था । वो पुरानी नीतियों के उलट इस बार कार्यवाही चाहता था । ये भी याद रखना होगा कि वो युद्ध नहीं चाहते , इसी कारण वो वर्षो तक अपनी सभी सरकारों द्वारा किये गए शांति प्रयासों को आंख मूँद कर समर्थन देते हुए आये हैं । परंतु अब उसमे ये बात घर कर गयी हैं कि इन कोशिशो की एवज में उसे सिर्फ विश्वासघात ही मिला हैं । हर वार्ता के दौर के बाद उसे किसी न किसी करगिल (१९९९) , मुम्बई (२००८) और पठानकोट (२०१६)  के लिए तैयार रहना होगा । पठानकोट और उरी में उसके उसके सैन्य प्रतिष्ठानों पर हमला मात्र आतंकी घटना न होकर एक सुनियोजित गैर परंपरागत लड़ाई का हिस्सा हैं । प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी अक्सर देश विदेश में प्राप्त सम्मान को देश की जनता द्वारा २०१४ में दिखाई गयी अद्भुत निर्णय क्षमता से जोड़ते हैं । उरी हमले के बाद से ही देश उसी तरह का मन बना चुका था और वो प्रधानमंत्री की नेतृत्व कौशल ( लिंक - ) की परीक्षा ले रहा था जिसमे दस दिन बाद वो सीमा पार सर्जिकल स्ट्राइक्स कर सफल साबित हुए । देश गद गद है कि उसकी अनिर्णय और कमज़ोर राष्ट्र वाली छवि टूटी हैं । सरकार ने वर्षो से चली आ रही यथास्थितिवाद की परिपाटी को तोड़ा है ।   

अब ये सवाल कि क्या सब यहीं रुक जाएगा , मूर्खता होगी । यदि सिर्फ ४०-५० आतंकवादियो को ढेर करने से ये मामला सुलझ जाता तो कार्यवाही वर्षो पूर्व ही कर ली जाती । शासन और प्रबुद्ध वर्ग को देश को ये समझाना होगा की पडोसी मुल्क की बुनियाद सिर्फ भारत विरोध पर टिकी हैं और जिस छद्म युद्ध को भारत पिछले ३० से अधिक वर्षो से लड़ रहा हैं उसको पाकिस्तान की पूरी फ़ौज-नेताऔ-मुल्ला ब्रिगेड और बौद्धिक जामात का समर्थन प्राप्त हैं । इस ढाँचे को नेस्तनाबूद किये बिना इस लड़ाई में कोई निर्णायक जीत प्राप्त नहीं की जा सकती । बलूचिस्तान में मानवाधिकार हनन के मुद्दों को उठाने के बाद , २९ सितम्बर की रात को भारतीय सेना द्वारा की गयी कार्यवाही सिर्फ एक सार्थक शुरुआत हैं । जिस धैर्य के साथ वर्षो तक हमने इन घटनाओ को झेला हैं , उसी संयम से बैगैर आतंकित हुए कुछ समय कठिन स्थिति के लिए तैयार होना होगा ।  नागरिको को नए खतरों के प्रति सचेत और जागरूक होना पड़ेगा । सरकार और सेना ने किसी भी कार्यवाही के विकल्प का निर्णय शत्रु पक्ष द्वारा किसी भी प्रतिशोधात्मक कार्यवाही के जोखिम की गड़ना करकर ही लिया होगा जिसमे सीधे परंपरागत युद्ध की संभावना तो कम होगी परंतु अन्य छद्म तरीको से भारत में नुक्सान पहुंचाने की कोशिश हो सकती हैं । जवाबी हमला त्योहारी मौसम में फिदायीन हमले या आतंकवादी गतिविधि के तौर पर हो सकता हैं । सुरक्षा एजेंसिया इस समय पूरी चौकसी बरतेंगी परंतु नागरिको को अपने दायित्वों को समझना ज्यादा ज़रूरी हैं । किसी भी एस्कालेशन / युद्ध की सूरत में समाज को प्रशिक्षित करना होगा । उनके मनोबल को बनाये रखना भी बड़ी जिम्मेदारी होगी । इस  दुष्प्रचार की संभावना सबसे अधिक हैं की आम भारतीयों को युधोन्मुख दिखाकर पडोसी जनता के समकक्ष खड़ा किया जाए । मिडिया के एक ख़ास वर्ग से बचने की भी आवश्यकता हैं जिसने वर्षो तक देश की सुरक्षा और आर्थिक नीतियों में हस्तक्षेप कर उन्हें भटकाने का प्रयास किया हैं । 

युद्ध की विभीषिका से भारतीय भली भाँति परिचित हैं , युद्धोंमादी माहौल से बचने की ज़रुरत भी हैं और इस तरह के सही फैसले लेने में सरकार और सेना सक्षम हैं । ये कार्यवाही दिखाने का प्रयास हैं कि भारतीयों की धैर्य की सीमा अब समाप्त हो चुकी हैं । वो आगे इस तरह की किसी भी घटना पर अपने आत्मसम्मान को ताक पर रख अपनी शांतिदूत की छवि और अर्थव्यवस्था को होने वाले नुक्सान के मुगालते में नहीं जीना चाहता । वो अपने जवानो और नागरिको की चिताओ पर आंसू  बहाने के बजाय उस पर थोपे जाने वाले किसी भी युद्ध का एकजुट होकर जोश के साथ प्रतिकार करेगा । यदि उरी की घटना भारत सरकार के नेतृत्व की परीक्षा थी तो उसके बाद की कार्यवाही और उससे उपजे हालात , आने वाले समय में भारतीय जनता के नागरिक धर्म की भी परीक्षा हैं ।