Friday, June 24, 2016

पोहा

वाजपेयी जी नाश्ते  को लेकर असमंजस की स्थिति में हैं और वो अपनी कविता  "ऊंचे पहाड़ पर पेड़ नहीं लगते"   ( http://kaavyaalaya.org/oonchai ) के माध्यम से "पोहे" पर  लिखते हैं।

इंदौर में नाश्ता नहीं होता,
न होता हैं लंच,
और न होता हैं डिनर,
सिर्फ होता हैं पोहा।

                  पोहा सिर्फ पोहा ;
                   जो ,होता हैं हल्दी सा पीला
                   और ठूंठ सा सूखा ;
                   खेलता  खिलखिलाता चिवड़ा
                    जिसका रूप धारण कर भीने भीने रोता हैं।

ऐसा पोहा जिसका
लॉन्ग भुजिया सेव
जीभ पर चटका भर दे,
ऐसा पोहा जिसका
जिसका कड़ी पत्ता,धनिया
रोम रोम में खुशबु भर दे,
अभिनन्दन का अधिकारी हैं ,
चटोरो के लिए आमंत्रण हैं ,
उसके लिए १२ रूपये दिए जा सकते हैं ,
               
                  किन्तु कोई भूखा
                  उससे पेट नहीं भर सकता,
                  न कोई थका मांदा बटोही,
                  खाकर पलभर पलक झपक सकता हैं।

सच्चाई यह हैं कि
केवल पोहा ही काफी नहीं होता,
पृथक से परिवेश,
चिवड़े से पोहा ,
सबको साथ जोड़ता हुआ,
सेव, भुजिया ,मूंगफली अनार को मिला लेना,
पोहे की महानता नहीं मजबूरी हैं।
बेस्वाद होने से चटकारो तक,
आकाश पातळ की दूरी हैं।

जरूरी ये हैं की
पोहे के साथ जलेबी हो लस्सी भी हो,
जिससे मनुष्य सिर्फ सुखा तिकट,
मुंह लिए न खड़ा रहे
जलेबी  से मिठास ले,
लस्सी से घुले मिले ,
और फिर स्वाद लेते चले।

                 जलेबी में खो जाना ,
                 लस्सी में डूब जाना,
                 पोहे में खुद को भूल जाना ,
                 अस्तित्व को अर्थ देता हैं ,
                 जीवन को सुगंध देता हैं।

नाश्ते को पोहे की नहीं ,
सब्जी कचोडी की ज़रुरत  हैं ,
इतनी भरी की लंच तक का काम कर दे ,
आँखों में थोड़ी सी नींद भर दे।
                 
                   किन्तु इतनी फूली भी नहीं,
                   कि पेट में गुड़ गुड़ कर दे।
                   कुछ और न  निगले,
                   कुछ और न  उगले।

हे प्रभु :
मुझे इतना कोलेस्ट्रॉल कभी न देना ;
जलेबी न खा सकूं , लस्सी न पी सकू
इतनी चिकनाई कभी मत देना।









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