Monday, October 10, 2016

उरी के शहीद - जनमानस



ए मेरे वतन के लोगों ,
ज़रा आँख में भरलो पानी ,
जो शहीद हुए हैं उनकी 
ज़रा याद करो कुर्बानी । 

१९६२ , चीन युद्ध के बाद कवि प्रदीप द्वारा रचित गीत ५४ वर्ष बाद भी भारतीय जनमानस में भावनाओ का ज्वार ला देता हैं । यह गीत हमारी मनः स्तिथि में पुराने घावों को उकेर जाता हैं । राष्ट्रीय पर्वो और श्रद्दांजली कार्यक्रमो पर इस गीत का आज भी उतना ही प्रचलित होना दर्शाता हम अक्सर अपने जवानों की शहादत को जल्द भूल ही नहीं जाते अपितु इस बात को मानने लग गए हैं की व्यक्ति सेना में मरने के लिए ही जाता हैं। 

कुछ यही सोच उरी के सैनिक कैम्प पर हुई आतंकवादी घटना के बाद रही होगी । साथ में सरकार भी दो चार बयान देकर निष्क्रियता की चादर ओढ़ लेगी । भारत जहाँ एक आर्थिक महाशक्ति के तौर पर उभर रहा रहीं वहीँ दूसरी तरफ ऐसी घटनाओ के बाद हमारी प्रतिक्रिया भारत को एक कमज़ोर राष्ट्र और समाज के तौर पर प्रस्तुत करती हैं । वर्षो से अपने जवानों और शहर दर शहर नागरिको पर हुए आतंकी हमलो को नज़रअंदाज करते हुए भारत सिर्फ आर्थिक प्रगति के मार्ग पर निर्बाध गति से दौड़ना चाहता हैं , इस मानसिकता ने भारत को एक "बनाना रिपब्लिक" की छवि के तौर पर स्थापित किया हैं । सवाल ये भी उभरता हैं कि अवाम किसी भी कार्यवाही और उसके बाद उपजे हुए हालात के लिए कितना तैयार हैं । सरकार से इतर क्या उसमे भी कठोर निर्णय लेने और उसके साथ खड़े रहने की क्षमता हैं ?

परंतु इस बार सरकार से पहले भारतीय जनमानस काफी हद तक एकजुट और तैयार था । अठारह जवानों की मौत पर देश मात्र अश्रुपूर्ण श्रद्धांजली के लिए तैयार नहीं था । वो पुरानी नीतियों के उलट इस बार कार्यवाही चाहता था । ये भी याद रखना होगा कि वो युद्ध नहीं चाहते , इसी कारण वो वर्षो तक अपनी सभी सरकारों द्वारा किये गए शांति प्रयासों को आंख मूँद कर समर्थन देते हुए आये हैं । परंतु अब उसमे ये बात घर कर गयी हैं कि इन कोशिशो की एवज में उसे सिर्फ विश्वासघात ही मिला हैं । हर वार्ता के दौर के बाद उसे किसी न किसी करगिल (१९९९) , मुम्बई (२००८) और पठानकोट (२०१६)  के लिए तैयार रहना होगा । पठानकोट और उरी में उसके उसके सैन्य प्रतिष्ठानों पर हमला मात्र आतंकी घटना न होकर एक सुनियोजित गैर परंपरागत लड़ाई का हिस्सा हैं । प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी अक्सर देश विदेश में प्राप्त सम्मान को देश की जनता द्वारा २०१४ में दिखाई गयी अद्भुत निर्णय क्षमता से जोड़ते हैं । उरी हमले के बाद से ही देश उसी तरह का मन बना चुका था और वो प्रधानमंत्री की नेतृत्व कौशल ( लिंक - ) की परीक्षा ले रहा था जिसमे दस दिन बाद वो सीमा पार सर्जिकल स्ट्राइक्स कर सफल साबित हुए । देश गद गद है कि उसकी अनिर्णय और कमज़ोर राष्ट्र वाली छवि टूटी हैं । सरकार ने वर्षो से चली आ रही यथास्थितिवाद की परिपाटी को तोड़ा है ।   

अब ये सवाल कि क्या सब यहीं रुक जाएगा , मूर्खता होगी । यदि सिर्फ ४०-५० आतंकवादियो को ढेर करने से ये मामला सुलझ जाता तो कार्यवाही वर्षो पूर्व ही कर ली जाती । शासन और प्रबुद्ध वर्ग को देश को ये समझाना होगा की पडोसी मुल्क की बुनियाद सिर्फ भारत विरोध पर टिकी हैं और जिस छद्म युद्ध को भारत पिछले ३० से अधिक वर्षो से लड़ रहा हैं उसको पाकिस्तान की पूरी फ़ौज-नेताऔ-मुल्ला ब्रिगेड और बौद्धिक जामात का समर्थन प्राप्त हैं । इस ढाँचे को नेस्तनाबूद किये बिना इस लड़ाई में कोई निर्णायक जीत प्राप्त नहीं की जा सकती । बलूचिस्तान में मानवाधिकार हनन के मुद्दों को उठाने के बाद , २९ सितम्बर की रात को भारतीय सेना द्वारा की गयी कार्यवाही सिर्फ एक सार्थक शुरुआत हैं । जिस धैर्य के साथ वर्षो तक हमने इन घटनाओ को झेला हैं , उसी संयम से बैगैर आतंकित हुए कुछ समय कठिन स्थिति के लिए तैयार होना होगा ।  नागरिको को नए खतरों के प्रति सचेत और जागरूक होना पड़ेगा । सरकार और सेना ने किसी भी कार्यवाही के विकल्प का निर्णय शत्रु पक्ष द्वारा किसी भी प्रतिशोधात्मक कार्यवाही के जोखिम की गड़ना करकर ही लिया होगा जिसमे सीधे परंपरागत युद्ध की संभावना तो कम होगी परंतु अन्य छद्म तरीको से भारत में नुक्सान पहुंचाने की कोशिश हो सकती हैं । जवाबी हमला त्योहारी मौसम में फिदायीन हमले या आतंकवादी गतिविधि के तौर पर हो सकता हैं । सुरक्षा एजेंसिया इस समय पूरी चौकसी बरतेंगी परंतु नागरिको को अपने दायित्वों को समझना ज्यादा ज़रूरी हैं । किसी भी एस्कालेशन / युद्ध की सूरत में समाज को प्रशिक्षित करना होगा । उनके मनोबल को बनाये रखना भी बड़ी जिम्मेदारी होगी । इस  दुष्प्रचार की संभावना सबसे अधिक हैं की आम भारतीयों को युधोन्मुख दिखाकर पडोसी जनता के समकक्ष खड़ा किया जाए । मिडिया के एक ख़ास वर्ग से बचने की भी आवश्यकता हैं जिसने वर्षो तक देश की सुरक्षा और आर्थिक नीतियों में हस्तक्षेप कर उन्हें भटकाने का प्रयास किया हैं । 

युद्ध की विभीषिका से भारतीय भली भाँति परिचित हैं , युद्धोंमादी माहौल से बचने की ज़रुरत भी हैं और इस तरह के सही फैसले लेने में सरकार और सेना सक्षम हैं । ये कार्यवाही दिखाने का प्रयास हैं कि भारतीयों की धैर्य की सीमा अब समाप्त हो चुकी हैं । वो आगे इस तरह की किसी भी घटना पर अपने आत्मसम्मान को ताक पर रख अपनी शांतिदूत की छवि और अर्थव्यवस्था को होने वाले नुक्सान के मुगालते में नहीं जीना चाहता । वो अपने जवानो और नागरिको की चिताओ पर आंसू  बहाने के बजाय उस पर थोपे जाने वाले किसी भी युद्ध का एकजुट होकर जोश के साथ प्रतिकार करेगा । यदि उरी की घटना भारत सरकार के नेतृत्व की परीक्षा थी तो उसके बाद की कार्यवाही और उससे उपजे हालात , आने वाले समय में भारतीय जनता के नागरिक धर्म की भी परीक्षा हैं ।  
    


Sunday, September 4, 2016

आजाद बलूचिस्तान

सरहद पार से पैगाम आया हैं ;
पैगाम मुल्क के नाम आया हैं;
बलूचियों ने मदद की गुहार लगायी हैं ;
आज़ादी की उम्मीद हमसे जगाई हैं।

हम तो इन्हें जानते भी नहीं ;
ये बलूची कहाँ हैं, कौन हैं ;
हमारा इनसे क्या रिश्ता हैं, 
सत्तर साल से हम मौन हैं। 

कहाँ हैं ये कळात ;
कौन हैं नवाब बुगती ;
क्यों इनकी कहानियो पर 
हमारी रूह नहीं दुखती। 

रोज़ जपते हैं हम,
पर बिसार दी हिंगलाज भवानी;  
कौन हैं ये लोग जिन्होंने ;  
वर्षो सहेजी ये निशानी। 

फौजी बूटो से कुचली मासूमियत 
बच्चो को ढूंढती माँ की सिसकी ;
कुछ तो उम्मीद रही होगी ,
नजर उनकी हम पर ठिठकी।

हम  मुजरिम हैं तिब्बत के ;
हम थोड़ा पंचशील हो गए ;
इंसानियत को भूल गए '
खुदगर्जी में जलील हो गये।   

जो कहते हैं घर की आग बुझाने,
हम उनकी आग में घी डाल रहे हैं;
ऐसे आस्तीन के सांपो को
हम क्यों पाल रहे हैं।

जब कट्टरता मात्र हो मुल्क की अवधारणा ;
आसान नक़्शे पर देश को उतारना हैं;
दिलो में घृणा का ही जब आधार हो
अवाम में ऐसे राष्ट्र को बसाना कोरी कल्पना है।

बहुत सह लिया इस जुल्म को ;
भारत अब और मूक नहीं बैठेगा,
जो इतिहास से सबक नहीं लेंगे
उनके लिए एक बंगदेश फिर से बनेगा।

आजाद बलूचिस्तान में ;
माँ हिंगलाज के दर्शन का इरादा हैं,
लड़ाई में बलूची खुद को अकेले ना समझे
ये हिंदुस्तानी अवाम का वादा  हैं। 














Sunday, August 14, 2016

समर १९९९

गाडी अब तेजी से द्रास की ओर बढ़ चली थी। आशु अब पीछे की सीट पर जा बैठा। हल्का सा उनींदा ,रास्ते में मश्कोह ,बटालिक,करगिल के बोर्ड और ऊंचे पथरीले पहाडो के दृश्य उसे १७ वर्ष पूर्व १९९९ की यादो में ले गये  जब वो १० वर्ष का था।

विद्यालय में ग्रीष्मावकाश की शुरुआत हो चुकी थी और इंग्लैंड में एकदिवसीय क्रिकेट विश्व कप चल रहा था।
मई की दोपहरी, घर में माँ और दादी अक्सर भोजन निपटा कर सो जाया करती थी। आशू और विशू बारी बारी से वीडियो गेम खेला करते और फिर दूरदर्शन पर मैच देखते। आशू मैच के दौरान अपनी क्रिकेट डायरी बनाया करता था। राजस्थान पत्रिका ने तभी से रंगीन खेल पृष्ठ छापना शुरू किया था, उन्ही में से कतरने काट काट कर पिछले साल की पुरानी डायरी में चुपकायी जाती। उसे अक्सर पिताजी की शेविंग वाली केंची से अखबार काटने के लिए डांट पिटा करती थी। ये बात तो उसे आज तक समझ नहीं आयी की कागज काटने से शेविंग वाली केंची की धार कैसे खराब हो जायेगी। माँ भी उसे कतरने काटने पर टोकती क्योंकि अब यह अखबार उनकी अलमारियों में बिछाने के काम भी नहीं आ सकते। इस कार्य के लिए दोपहर का समय ही सबसे मुफीद होता था जब शांति से वो अपना काम कर सकता था।

तब गूगल की सुविधा नहीं हुआ करती थी। सभी आंकड़े , नए पुराने कीर्तिमान अलग अलग रंगों के स्केच पेन से अंकित करके आशू अपनी डायरी बनाता था। विश्वकप में भारत अपना पहला मुकाबला दक्षिण अफ्रीका से हार चुका था, दूसरा ज़िम्बावे से था। सचिन पिता की मृत्यु की वजह से स्वदेश वापिस लौट गए थे। भारत ने उस खेल में  ५० से अधिक अतिरिक्त रन  दिए और आखिर में ३ रन से मैच हार गया। अब सुपर सिक्स मुकाबलो  में जाने के लिए भारत को सभी शेष मुकाबलो को जीतना ज़रूरी था। अगला एकदिवसीय केन्या से था जिसे द्रविड़ और तेंदुलकर के शतकों की बदौलत भारत ने आसानी से जीत लिया। पिता की मृत्यु के बाद यह सचिन का पहला वापसी मैच था। २६ मई को भारत का मुकाबला श्रीलंका से था। गांगुली -द्रविड़ की ताबड़तोड़ बल्लेबाजी भारत ने ३७३ रन का विशाल लक्ष्य रखा। गांगुली ने किसी भी भारतीय द्वारा एकदिवसीय में सर्वाधिक रन बनाने का कीर्तिमान अपने नाम किया। भारत की पारी समाप्ति पर आशु अपने भाई विशू के साथ कॉलोनी के मित्रो के साथ खलने चला गया। घर में उस दिन एक छोटा समारोह था जिसमे कुछ मेहमान आने वाले थे। आशु के पिताजी ने घर के बाहर बगीचे में मैच देखने की व्यवस्था की थी। आशु जब खेलके लौटता हैं तो वहां माहौल बदला हुआ सा था।

भारत -श्रीलंका मुकाबला छोड़कर सब समाचार सुन रहे थे। परिवार के वरिष्ठों की बातें खेल से हटकर पाकिस्तान और कश्मीर पर जा अटकी। यही पहली बार था जब उसने करगिल, मुजाहिद्दीन और घुसपैठिये जैसे शब्द सुने। अभी तक कश्मीर से हर रोज़ कोई न कोई छुटपुट घटना की सूचना आती रहती थी। उसके पिताजी भी पिछले ही वर्ष कश्मीर किसी कार्य के सिलसिले में गए गए थे और उसके लिये कश्मीर विलो का बल्ला लेके आये थे। परंतु आज मामला कुछ ज्यादा ही गंभीर था। एक दो बार पूछने के बाद बाबा ने उसे बताया की भारत और पकिस्तान में जंग की आधिकारिक शुरुआत हो गयी हैं जिसका नाम ऑपरेशन विजय हैं। उसी दिन भारत ने कारगिल की पहाड़ियों पर बैठे घुसपैठियों को खदेड़ने के लिए वायुसेना के इस्तेमाल की इजाजत दी। रात को पिताजी ने उससे एटलस मंगवाई और दोनों भाइयो को बैठा के करगिल और आस पास के इलाको के बारे में समझाया।

उस दिन से काफी कुछ बदल गया। सवेरे अखबार आते ही अब १४ वे पृष्ट से ध्यान पहले पृष्ट पर आ गया। हर रोज़ सीमा पर जवानों के शहीद होने की खबरे आने लगी। शहर से सेना में कप्तान काफी दिनों से लापता थे। दुश्मन द्वारा कुछ जवानों के शवो को क्षत विक्षित करने की खबरे देखकर उसका दस वर्षीय बाल मन अक्सर गुस्से से भर जाता था। राज्य भर में कारगिल में शहीद हुए जवानों के शव आने की शुरुआत हो गयी। अखबार " जब तक सूरज चाँद रहेगा" जैसे नारो और अंत्योष्टि की खबरों से अटे पड़े थे। नजदीकी छावनी से अक्सर सेना के ट्रकों  और टेंको के, सीमा की तरफ सञ्चालन की आवाज़ घर तक पहुंचा करती थी। दोनों भाई सायकिल पर उनको देखने निकल पड़ते और तब तक जय हिन्द के नारे लगते और तालिया बजाते जब तक वे आँखों से ओझल न हो जाए।

विश्व कप में अब भारत के साथ साथ पकिस्तान के मुकाबलो में भी रूचि बढ़ गयी। भारत, श्रीलंका के बाद इंग्लैंड को हराकर अगले दौर में प्रवेश कर चूका था। यूं तो पकिस्तान भी अंतिम छह: में स्थान बनाने में कामयाब रहा परंतु बहुत कमज़ोर मानी जाने वाली बांग्लादेश से उसकी हार ने देश को काफी ख़ुशी दी। खेल के बाद टीम के कप्तान वसीम  अकरम ने कहा "वी लॉस्ट तो आवर ब्रदर्स", भारत में मजाक चल पड़ा कि जिस दिन ये हमसे हारेगा बोलेगा "वी लॉस्ट तो आवर फादर्स " , भारत के लिए अब पकिस्तान से मुकाबला जीतना बेहद अहम था।  सीमा पर जब देश युद्ध में हो तो क्रिकेट में दुश्मन से हार शायद ही कोई भारतीय पचा पाता। अहसास था की भारत भले ही विश्व कप में आगे न बढे परंतु पाकिस्तान को पटखनी ज़रूर दे। ८ जून १९९९ को पहले बल्लेबाजी करते हुए भारत ने २२७ का साधारण लक्ष्य रखा जो सईद अनवर की तेज शुरुआत के बाद और भी बौना साबित हो रहा था।  परंतु श्रीनाथ और वेंकटेश की धारदार और असाधारण गेंदबाज़ी ने भारत को खेल में बनाये रखा। मोईन खान का विकेट गिरते ही भारत में दिवाली का दौर शुरू हो चूका था। वेंकेटेश प्रसाद का २७/५ जीवन का सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन रहा। भारत जो अपने आगे के मुकाबले हार कर प्रतियोगिता से बाहर हो गया था, उसके  के लिए यही विश्व कप की जीत थी। पकिस्तान विश्व कप के निर्डनायक मुकाबले तक पहुंचा और ऑस्ट्रेलिया से हार गया।
 दूसरी तरफ करगिल में अभी तक भारत को सीमा पर कोई बड़ी सफलकता नहीं मिली थी। परंतु शायद क्रिकेट की जीत ने सीमा पर लड़ रहे जवानों पर मनोवैज्ञानिक असर तो डाला ही। जल्द ही १३ जून को भारत को तोलोलिंग की पहली बड़ी सफलता मिली और कुछ हफ़्तों बाद टाइगर हिल पर भारतीय ध्वज फहराया। इसके बाद के महीने भर में भारत ने लगभग सभी बड़ी चोटियों पर पुनः अपना वर्चस्व स्थापित कर लिया। चोटियों पर तिरंगा पकडे जवानों की तस्वीरे अब अखबार के पहले पृष्ठ पर थीं। इसी बीच ग्रीष्मावकाश समाप्त हो गया। विद्यालय में शहीदों के लिए विशेष प्रार्थना सभा हुई। २ महीने बाद कैप्टन अमित भरद्वाज का शव जयपुर लाया गया तो पूरे विद्यालय समेत शहर की आँखे नम थी । २६ जुलाई को प्रधानमंत्री ने युद्ध में विजयश्री की घोषणा कर दी। घर में शहीदों के लिए  दिया जलाया गया।

इन्ही यादो के झरोखों  के बीच गाडी अब द्रास में बने युद्ध स्मारक पर पहुँच चुकी थी। उसकी आंखो की पलकों पर हलकी बूँद सी आके रह गयी। उसके मन में विचार आया, एक १० वर्षीय बालक के लिए देशभक्ति और राष्ट्रवाद का अहसास कितना मासूम और सरल था। वो भले ही सेना में न हो और न ही किसी खेल में राष्ट्र का प्रतिनिधित्व करता हो परंतु अपने नागरिक धर्म और कर्तव्यों का निर्वहन करके भी सही माएने में देशभक्ति का परिचय दे सकते हैं। समझ नहीं आता आज कुछ किताबे पढ़कर और किसी विचारधारा से ओतप्रोत उसी के हमउम्र २६-२७ वर्षीय देश के खिलाफ नारा लगाने और उसके टुकड़े टुकड़े करने की सोच रखने की हिम्मत कैसे जुटा लेते हैं।      


Friday, June 24, 2016

पोहा

वाजपेयी जी नाश्ते  को लेकर असमंजस की स्थिति में हैं और वो अपनी कविता  "ऊंचे पहाड़ पर पेड़ नहीं लगते"   ( http://kaavyaalaya.org/oonchai ) के माध्यम से "पोहे" पर  लिखते हैं।

इंदौर में नाश्ता नहीं होता,
न होता हैं लंच,
और न होता हैं डिनर,
सिर्फ होता हैं पोहा।

                  पोहा सिर्फ पोहा ;
                   जो ,होता हैं हल्दी सा पीला
                   और ठूंठ सा सूखा ;
                   खेलता  खिलखिलाता चिवड़ा
                    जिसका रूप धारण कर भीने भीने रोता हैं।

ऐसा पोहा जिसका
लॉन्ग भुजिया सेव
जीभ पर चटका भर दे,
ऐसा पोहा जिसका
जिसका कड़ी पत्ता,धनिया
रोम रोम में खुशबु भर दे,
अभिनन्दन का अधिकारी हैं ,
चटोरो के लिए आमंत्रण हैं ,
उसके लिए १२ रूपये दिए जा सकते हैं ,
               
                  किन्तु कोई भूखा
                  उससे पेट नहीं भर सकता,
                  न कोई थका मांदा बटोही,
                  खाकर पलभर पलक झपक सकता हैं।

सच्चाई यह हैं कि
केवल पोहा ही काफी नहीं होता,
पृथक से परिवेश,
चिवड़े से पोहा ,
सबको साथ जोड़ता हुआ,
सेव, भुजिया ,मूंगफली अनार को मिला लेना,
पोहे की महानता नहीं मजबूरी हैं।
बेस्वाद होने से चटकारो तक,
आकाश पातळ की दूरी हैं।

जरूरी ये हैं की
पोहे के साथ जलेबी हो लस्सी भी हो,
जिससे मनुष्य सिर्फ सुखा तिकट,
मुंह लिए न खड़ा रहे
जलेबी  से मिठास ले,
लस्सी से घुले मिले ,
और फिर स्वाद लेते चले।

                 जलेबी में खो जाना ,
                 लस्सी में डूब जाना,
                 पोहे में खुद को भूल जाना ,
                 अस्तित्व को अर्थ देता हैं ,
                 जीवन को सुगंध देता हैं।

नाश्ते को पोहे की नहीं ,
सब्जी कचोडी की ज़रुरत  हैं ,
इतनी भरी की लंच तक का काम कर दे ,
आँखों में थोड़ी सी नींद भर दे।
                 
                   किन्तु इतनी फूली भी नहीं,
                   कि पेट में गुड़ गुड़ कर दे।
                   कुछ और न  निगले,
                   कुछ और न  उगले।

हे प्रभु :
मुझे इतना कोलेस्ट्रॉल कभी न देना ;
जलेबी न खा सकूं , लस्सी न पी सकू
इतनी चिकनाई कभी मत देना।









Tuesday, June 7, 2016

" राहुल " शाह जफ़र


न किसी का नूर हूँ 







History repeats itself. Last Mogul Bhadur Shah Jafar was exiled to Yangoon but Last Gandhi voluntarily exiled to Bangkok writing Rahulnama.



ना किसी का नूर हूँ
ना किसी के दिल का करार हूँ ,
कांग्रेस के काम न आ सका
मै इंदिरा का पोता-ए-बेकार हूँ।

ना राजीव सा 'ग्लैमरौस' ,
ना नेहरू सा चार्म हूँ
एक गाल पर खड्डा लिए
दीदी के लिए पार्टी का रिफार्म हूँ।

मेरा उम्र ए दराज़ थोडा बड़ गया,
दोस्त भीम भी बिछड़ गया।
जो चमन बसाया जवाहर ने
मै उसकी चौथी पीढ़ी ए बेजार हूँ।

कोई मुझ से मिले क्यों,
कोई पॉवर का जहर चटायें क्यों
कोई प्रचार करने बुलाये क्यों
मैं लुटियन का बासी हुआ सत्ता का आचार हूँ।

मैं जनपथ रहू या रोम बसूँ
ना माँ मुझसे खुश ना पार्टी खुश मुझसे
कितनी बार फाइनल  'कमिंग औफ ऐज' कहूँ
मै क्यों जाके 7 आर सी आर रहूँ

न किसी का नूर हूँ
न किसी का करार हूँ----- -


राहुल शाह जफ़र


Friday, May 6, 2016

ऐन.एच.टी.वी



न्यू हस्तिनापुर टेलीविशन


हस्तिनापुर राज्य की स्थापना के साथ ही उसके चौथे स्तम्भ मीडिया का जन्म हुआ। शुरूआती वर्षो में सरकार द्वारा संचालित व्यास दर्शन और आकाशवाणी ही एकमात्र साधन थे। परन्तु दुर्योधन के युवराज बनने के बाद नव उदारवाद का दौर शुरू हुआ, मीडिया और केबल टीवी को निजी क्षेत्र के लिए खोल गया। इसी दौर में 'न्यू हस्तिनापुर टेलीविशन' तेजी से उभरता हुआ अपनी जगह बनता हैं।

ऐन.एच.टी.वी  की स्थापना संजय ने की।संजय की शुरुआत महाराज ध्रितराष्ट्र की BMW और AUDI रथो  के सारथि के तौर पर होती हैं।कुछ ही वर्षो में महाराज की सिफारिश से उसे व्यासदर्शन पर नौकरी मिल जाती हैं और वो "हस्तिनापर दिस वीक" जैसे कार्यक्रम की शुरुआत करता हैं । उदारवाद के बाद बदली हुयी परिस्थितियों और युवराज दुर्योधन की मदद से संजय प्राइवेट न्यूज़ चैनल का लाइसेंस प्राप्त करने में सफल होता हैं और ऐन.एच.टी.वी  की नीव डालता हैं।आगे चलकर संजय 'पुष्पक एयरलाइन्स' के साथ मिल कर एंटरटेनमेंट के क्षेत्र में कदम भी रखता है।इसी दौर में महाराज ध्रितराष्ट्र उन्हें अपना मिडिया सलाहकार भी नियुक्त करते हैं।

2002, महाभारत युद्ध को को चैनल का स्वर्णिम काल कहा जाए तो गलत नहीं होगा जब उसने TRP के सारे रिकॉर्ड ध्वस्त कर दिए। संजय के पारिवारिक मित्र आधीरथ और राधा इसी दौरान बतौर रिपोर्टर कदम रखते हैं.
युद्ध के दौरान जहाँ  एक वर्ग उसकी तारीफ़ करता हैं वहां एक बड़ा वर्ग उसकी नकारात्मक, भड़काऊ, संवेदनहीन रिपोर्टिंग की आलोचना भी करता हैं। उस पर जॉर्नलिस्टिक एथिक्स को ताक पर रख पक्षपाती रिपोर्टिंग से वॉर एस्कलेट  करने के आरोप भी लगते हैं। ऐन.एच.टी.वी ने युद्ध के दौरान जान बूझकर 'घटोत्कच वध' और 'अभिमन्यु हत्याकांड' को दबाया, साथ ही 'गुरुद्रोण वध' और युवराज दुर्योधन के बहनोई  जयद्रथ के एनकाउंटर  को बड़ा चढा कर पेशकर कौरव समुदाय में अपनी जगह बनायीं। ऐन.एच.टी.वी पर ये आरोप भी लगा की उसने जयद्रथ एनकाउंटर के बाद बने कृपाचार्य कमीशन की रिपोर्ट के साथ छेड़खानी कर घटना के समय में बदलाव कर उसे फर्जी बताने का प्रयास भी किया।

पोस्ट कुरुक्षेत्र
अब समय काफी बदल गया हैं और हस्तिनापुर में महाराज युधिस्ठिर की सरकार हैं। कुरुक्षेत्र ग्राउंड लीज पर देने की एवज में उसके मालिक को और भगवान् कृष्ण के सहयोगी सुदर्शन को भी न्यूज़ चैनल का लाइसेंस मिल गया हैं और वो पूरी तरह महाराज के साथ हैं। सुदर्शन अपनी ज्यादा ही धारदार रिपोर्टिंग से विवादित ज्यादा हैं।

ऐन.एच.टी.वी  की TRP अब सबसे नीचे पायदान पर हैं और उस पर ५करोड़ सोने की अशर्फियों को लेकर फोरेक्स मापदंडों  की अवहेलना के मामले में  FEMA और ED की जांच का खतरा बना हुआ हैं। महाराज के प्रिय नकुल और सहदेव अक्सर उस पर इंटरव्यू और बाइट्स देते हुए नज़र आते हैं जिससे पांडव सेना काफी रोष में हैं। चैनल अक्सर महाराज को 'बुचर ऑफ़ कुरुक्षेत्र' और 'मिसोञनिस्ट हू गंबेल्ड हिज वाइफ' जैसे उपनाम देकर कौरव समुदाय में जगह बनाया हुआ हैं। संजय के लिए सबसे ज्यादा परेशानी स्वामी विदुर बने हुए हैं जो अभिमन्यु हत्याकांड की फिर से जांच करवाने के लिए उच्तम न्यायलय में अर्जी दे चुके हैं। उनका आरोप हैं कि  ऐन.एच.टी.वी  ने घटना ने दौरान अपनी रिपोर्टिंग से अभिमन्यु की लोकशन्स और जीपीएस कॉर्डिनट्स शत्रु सेना को मुहैया करा के देशद्रोह का कार्य किया हैं। चैनल की नयी मुसीबत संजय द्वारा ,VVIP रथो के लिए पूर्व महारानी गांधारी के मायके से ईरानी घोड़ो की खरीद में १२५ करोड़ अशर्फियों की दलाली लेने को लेकर हैं।


अधिरथ और राधा के चैनल को द्वारका के एक बड़े इंडस्ट्रियलिस्ट ने खरीद लिया हैं। संजय अब सक्रिय पत्रकारिता से निवृत हो चुके हैं। महाराज युधिस्ठिर की सरकार के दमनचक्र के विरोध में ऐन.एच.टी.वी अपनी स्क्रीन काली कर दी हैं और उसे सिर्फ पूर्व राजमाता गांधारी काली पट्टी बाँधे देखती रहती हैं।



*ब्लॉग की प्रेरणा शिव मिश्रा  जी द्वारा लिखित  "दुर्योधन की डायरी से" ली गयी हैं।
 



Tuesday, March 3, 2015

प्रत्युक्ता


इंजन की सीटी पर गार्ड ने झंडी लहराई
खड़ा था दरवाज़े पर, यादें घूमड़ आई|
बढ़ी आगे गाड़ी, अपनो की तस्वीर धुन्धुलाई .
पलकों की खिड़की पर कुछ बूँदें मिलने आईं|

दो पटरियाँ जो कभी ना मिलेंगी,
ले चली मुझे मिलाने,
एक नये पते से एक नये सपने से,
कुछ नये लोग, मुझ ही जैसे मुझसे|

 पहुँचा अपनी मंज़िल पर,
लगा मिला हूँ कुछ आइनो से,
एक अजीब सी थी झुंझलाहट,
अकेलेपन में बसी सासों की थी आहट|

इसी बीच एक तूफान उठता है,
खामोशी तोड़ता दिलों को जोड़ता.
मुझे झक्झोर जाता है|
शायद यही उधभव कहलाता है|
तूफ़ा में अपनो से बिछड़े, बहुतों से मुलाकात हुई
उनसे मिलके लगा जैसे अपनों से बात हुई|
कोई मेरी ही उमर का, नाम अंकित
करने का संकेत देता है|
अपने आप से अपेक्षा करती
गुमसुम श्रेया भी है|

अमेया की सुनकर लगा
प्र-कृति से ज़्यादा बोल गया,
अनूप अनुराग भरी यादों को संजोने में खो गया|
ऐक रॉबिन-हुड नवी भी है,
खुद को ताराश्ते अगम राहुल और तृप्ति भी हैं|
बातों के मांझो में उलझाता तनुज है,
उसका लहज़ा कानों में  अमृत घोलता है|

सावन के मौसम में शरद सा एहसास है
खिलखिलाती अमीशा किरणो का आभास है|
मेरे सवालों में अटकी,
मेरी मुस्कुराहट का जवाब इन्ही में पता हूँ
शायद इन से ही मिलके प्रतियुक्ता कहलाता हूँ

for NICMAR juniors batch 2015